एक बहुत पुराना वृक्ष था। आकाश में सम्राट की तरह उसके हाथ फैले हुए थे। उस पर फल आते थे तो दूर-दूर से पक्षी सुगंध लेते आते थे। उस पर फूल लगते थे तो तितलियां उड़ती चली आती थी। उसकी छाया, उसके फैले हाथ, हवाओं में उसका वह खड़ा रूप आकाश में बड़ा सुंदर लगता था। एक छोटा सा बच्चा उसकी छाया में रोज खेलने आता था। उस बड़े वृक्ष को उस छोटे बच्चे से प्रेम हो गया। बड़ों को छोटों से प्रेम हो सकता है। अगर बड़ों को पता न हो कि हम बड़े हैं। वृक्ष को कोई पता नहीं था कि मैं बड़ा हूं, वह पता सिर्फ आदमियों को होता है। इसलिए उसका प्रेम मर गया है, और वृक्ष अभी निर्दोष है निष्कलुष है उन्हें नहीं पता की मैं बड़ा हूं। अहंकार हमेशा अपने से बड़ों से प्रेम करने की कोशिश करता है। अहंकार हमेशा अपनों से बड़ों से संबंध जोड़ता है। प्रेम के लिए कोई बड़ा-छोटा नहीं है। जो आ जाएं, उसी से संबंध जुड़ जाता है। वह एक छोटा सा बच्चा खेलने आता था, उस वृक्ष के पास। उस वृक्ष का उससे प्रेम हो गया। लेकिन वृक्ष की शाखाएं ऊपर थीं। बच्चा छोटा था, तो वृक्ष अपनी शाखाएं उसके लिए नीचे झुकाता, ताकि वह फल तोड़ सके, फूल तोड़ सके। प्रेम हमेशा झुकने को राजी है, अहंकार कभी भी नहीं झुकने को राजी होता है। अहंकार के पास जाएंगे, तो अहंकार के हाथ और ऊपर उठ जायेंगे। ताकि आप उन्हें छू न सकें। क्योंकि जिसे छू लिया जाए। वह छोटा आदमी है। जिसे न छुआ जा सके, दूर सिंहासन पर दिल्ली में हो, वह आदमी बड़ा आदमी है। उस वृक्ष की शाखाएं नीचे झुक आती थी, जब वह बच्चा खेलता हुआ आता उस वृक्ष के पास, और वह जब उसका फूल तोड़ता, तब वह वृक्ष अंदर तक सिहर जाता, प्रेम की छुअन से सराबोर हो जाता। और खुशी के मारे उसकी शाखाएं नाचने झूमने लगती। उसके प्राण आनंद से भर जाते। प्रेम जब भी कुछ दे पाता है, तो खुश हो जाता है। अहंकार जब भी कुछ ले पाता है, तभी खुश होता है। फिर वह बच्चा बड़ा होने लगा। वह कभी उसकी छाया में सोता, कभी उसके फल खाता, कभी उसके फूलों का ताज बनाकर पहनता, वृक्ष उसे जंगल के सम्राट के रूप में देखकर गदगद हो जाता। प्रेम के फूल जिसके पास भी बरसते हैं, वही सम्राट हो जाता है। वृक्ष के प्राण आनंद से भर जाते, उसकी छुआन उसे अंदर तक गुदगुदा जाती। हवा जब उसके पता को छूती, तो उससे मधुर गान निकलता। नए-नए गीत फूटते उस बच्चे के संग। वह लड़का कुछ और बड़ा हुआ। वह वृक्ष के उपर चढऩे लगा। उसकी शाखाओं से झूलने लगा। वह उस की विशाल शाखाओं पर लेट कर विश्राम करता। वृक्ष आनंदित हो उठता। प्रेम आनंदित होता है, जब प्रेम किसी के लिए छाया बन जाता है। अहंकार आनंदित होता है, जब किसी की छाया छीन लेता है।
लड़का धीरे-धीरे बड़ा होता चला गया। दिन पर दिन बीतते ही चले गए, मानो समय को पंख लग गए। ऋतु पर ऋतु, ऋतु पर ऋतु बदलती चली गयी। वृक्ष को पता ही नहीं चला उस समय का। जब हम आनंद में होते हैं, तो समय की गति तेज हो जाती है। मानो उसके पंख लग गये हो। तब लड़का बड़ा हो गया, तो उसे और दूसरे काम भी उसकी दुनिया में आ गये। महत्वकांक्षाएं आ गई। उसे परीक्षाएं पास करनी थी। उसे मित्रों के साथ भी खेलना था। पढ़ाई में सब को पछाड़ कर अव्वल आना था। धीरे-धीरे उसका आना कम से कमतर होता चला गया। कभी आता कभी नहीं आता। लेकिन वृक्ष, तो हमेशा उसकी राह तकता रहता। कि वह कब आये और उसके उपर चढ़े उसकी टहनियों से खेले, उसके फूल तोड़े। उसके फल खाये। लेकिन वह हफ्तों महीनों बाद कभी आता। वृक्ष उसकी प्रतीक्षा करता कि वह आये। वह आये। उसके सारे प्राण पुकारते कि आओ-आओ। प्रेम निरंतर प्रतीक्षा करता है कि आओ-आओ। प्रेम एक प्रतीक्षा है, एक अवेटिंग है। लेकिन वह कभी आता, कभी नहीं आता, तो वृक्ष उदास रहने लगा। प्रेम की एक ही उदासी है जब वह बांट नहीं सकता। तब वह उदास हो जाता है। जब वह दे नहीं पाता, तो उदास हो जाता है। और प्रेम की एक ही धन्यता है कि जब वह बांट देता है, लुटा देता है, तो आनंदित हो जाता है। फिर लड़का और बड़ा होता चला गया। और वृक्ष के पास आने के दिन कम होते चले गये। जो आदमी जितना बड़ा होता चला जाता है महत्वाकांक्षा के जगत में, प्रेम के निकट आने की सुविधा उतनी ही कम होती चली जाती है। उस लड़के की महत्वाकांक्षा बढ़ रही थी। कहां अब वृक्ष के पास जाना। फिर एक दिन वह वहां से निकला जा रहा था, तो उस वृक्ष ने उसे पुकार की सुनो। हवाओं ने पत्तों ने उसकी आवाज को गुंजायमान किया। तुम आते नहीं, मैं प्रतीक्षा करता हूं, मैं रोज तुम्हारी राह देखता हूं, कि तुम इधर आओ, मेरी आंखें थक जाती है। पर तुम अब इधर नहीं आते क्यों? उस लड़के ने एक बार घूर कर देखा उस वृक्ष को और कहा की क्या है तुम्हारे पास। जो मैं आऊं, मुझे तो रूपये चाहिए। हमेशा अहंकार पूछता है, कि क्या है तुम्हारे पास, जो मैं आऊं। अहंकार मांगता है कि कुछ हो, तो मैं आऊं। न कुछ हो, तो आने की जरूरत नहीं है। अहंकार एक प्रयोजन है, एक परप•ा है। प्रयोजन पूरा होता है, तो मैं आऊं। अगर कोई प्रयोजन न हो, तो आने की जरूरत क्या है। और प्रेम निष्प्रयोजन है। प्रेम का कोई प्रयोजन नहीं। प्रेम अपने में ही अपना प्रयोजन है, वह बिलकुल पर्पजलेस है। वृक्ष तो चौंक गया। उसने कहा, तुम तभी आओगे, जब मैं तुम्हें कुछ दूँ। मैं तुम्हें सब दे सकता हूं। क्योंकि प्रेम कुछ भी रोकना नहीं चाहता। जो रोक ले वह प्रेम नहीं है। अहंकार रोकता है। प्रेम तो बेशर्त देता है। उस वृक्ष ने कहा, लेकिन ये रूपये तो मेरे पास नहीं है। ये रूपये तो आदमी की ईजाद है। उसी का रोग है अभी हमे नहीं लगा। हम बचे हैं अभी। इसीलिए तो देखो हम इतने आनंदित है। पर मनुष्य के संग-साथ रहकर हम उसके रोग को पाल लेते हैं। वरना तो हमारे उत्सव को देखो इन खिलें फूलों को देखो, इतने विशाल तने, इनकी छाया। इन पर पक्षियों का चहकना। अपने घर बनाना। खेलना -नाचना। कलरव करना। देखो हम कितने नाचते हैं आकाश में, कितने गीत गाते हैं। क्योंकि हमारे पास पैसा नहीं है। हम आदमी की तरह दीन-हीन मंदिरों में बैठ कर, शांति की कामना करते हैं। कि कैसे पाई जायें। सर टकराते हैं उसके चरणों में कि हमें कुछ तो दो, हम पड़े है तेरे द्वार...पर हमारे पास पैसा नहीं है।
तो बच्चे ने कहा, फिर क्यों आऊं में तुम्हारे पास। जहां पर रूपये हैं मुझे तो वहीं जाना है। तुम समझते नहीं हमारी मजबूरी, क्योंकि तुम्हें पैसे की जरूरत नहीं है। पानी तुम्हें कुदरत से मिल जाता है, जिस मिट्टी पर तुम खड़े हो वह तुम्हें मुफ्त में मिल गई है। हवा, धूप जो तुम्हें पोषण देती है उसके लिए तुम्हें कुछ देना नहीं होता। पर हमें तो सब पैसे से ही लेना है, हमारा जीवन तो पैसे से ही चला है.....अब ये बात तुम्हें कैसे समझाऊं। अहंकार रूपये मांगता है। क्योंकि रूपया शक्ति है, सुरक्षा है।
उस वृक्ष ने बहुत सोचा, फिर उसे ख्याल आया....तो तुम एक काम तो कर सकते हो, मेरे सारे फल तोड़ कर ले जाओ और बेच दो उसे बाजार में, फिर तुम्हें शायद पैसा मिल जाये। उस लड़के की आंखों में चमक आ गई। उसे तो ये ख्याल ही नहीं आया था। वह खुशी से राजा हो गया। वह चढ़ गया उस वृक्ष पर और तोडऩे लगा फल, पर आज उसके हाथों में क्रूरता थी, उसके चढऩे से भी उस वृक्ष को कुछ भारीपन लग रहा था। उसने फलों के साथ तोड़ डालें हजारों पत्ते, टहनियां, वृक्ष को पीड़ा होती पर वह यह जान कर आनंदित होता कि ये पीड़ा उसके प्रेमी ने ही तो दी है। प्रेम पीड़ा में भी आनंद देख लेता है। और अहंकार उदारता में भी दुख। लेकिन फिर भी वह वृक्ष खुश था कि इस बहाने उसे उस का संग साथ तो मिला।
टूटकर भी प्रेम आनंदित हो जाता है। अहंकार पाकर भी आनंदित नहीं होता। पाकर भी दुखी होता है। ओर उस लड़के ने तो धन्यवाद भी नहीं दिया और सारे फल ले कर चल दिया बाजार की ओर। वृक्ष उसे निहारता रहा। जाते हुए देखता रहा, अपने को तृप्त करता रहा पर उसने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। लेकिन उस वृक्ष को पता भी नहीं चला। उसे तो धन्यवाद मिल गया इसी में कि उस लड़के ने उसके प्रेम को स्वीकार किया। और उससे फल तोड़े और उन्हें बेचकर उसे धन मिल जायेगा। वह यह सोच-सोच कर गदगद हो रहा था।
लेकिन इसके बाद भी वह लड़का बहुत दिनों तक नहीं आया। उसके पास रूपये थे,और रुपयों से रूपये पैदा करने की कोशिश में वह लग गया। वह भूल ही गया उस बात को। कि वह पैसा उसे उसी वृक्ष के प्रेम की देन है। सालों गुजर गये। और धीरे-धीरे वृक्ष की उदासी उसके पत्तों पर भी उभरने लगी। तेज हवा ये उसे खडख़ड़ाती जरूर पर अब उनमें वह लयवदिता नहीं थी। एक मुर्दे की सी खडख़ड़ाहट थी। वह इसलिए जीवित था कि उसके प्राणों में रस का संचार हो रहा था। उसके प्राण को रस बार-बार पुकारता उस लड़के को की तू मेरे पास आ मैं तुझे अपना रस दूँगा। जैसे किसी मां के स्तन में दूध भरा हो और उसका बेटा खो जाये। और उसके प्राण तड़प रहे है कि उसका बेटा कहां है जिसे वह खोजे, जो उसे हलका कर दे। निर्भार कर दे। ऐसा उस वृक्ष के प्राण पीडि़त होने लगे कि वह आये—आये, आये। उसके प्राणों की सारी आवाज में यही गूंज रहा था। आओ-आओ।
बहुत दिनों के बाद वह आया। वह लड़का प्रौढ़ हो गया था। वृक्ष ने उससे कहा आओ मेरे पास। मेरे आलिंगन में आओ। उसने कहा छोड़ो, यह बकवास। यह बचपन की बातें है। अब में बड़ा हो गया हूं, मेरे कंधों पर घर गृहस्थी का बोझ आ गया है। ये सब तुम नहीं समझ सकते। अहंकार प्रेम को पागलपन समझता है। बचपन की बातें समझता है। उस वृक्ष ने कहा, आओ मेरी डालियों से झूलों—नाचो, चढ़ो मुझ पर। दौड़ो भागो.... उसने कहा छोड़ो भी ये फजूल की सब बातें, क्या रखा इन सब में। समय खराब करना ही है। मुझे एक मकान बनाना है। तुम मुझे मकान दे सकते हो?
वृक्ष ने कहा, मकान? वह क्या होता है, हम तो कोई मकान नहीं बनाते। क्यों बनाओगे तुम मकान। क्या काम आयेगा। और भी पशु-पक्षी भी मकान, घोसला बनाते हैं, चींटियाँ, दीमक, पर वह तो आदमी की तरह दु:खी नहीं होती। वह तो बड़े आनंद उत्सव से उसके बनाने का आनंद लेती हैं। फिर तुम इतने उदास क्यों है? लेकिन एक बात हो सकती है, मैं क्या सहायता कर सकता हूं तुम्हारे मकान बनाने के लिए.....कोई हो तो कहो। वह आदमी थोड़ी देर के लिए तो चुप हो गया। उसके दिल की बात ज़ुंबाँ पर आते-आते रूक गई। पर वह साहस कर के कहने लगा। तुम अपनी शाखाएं मुझे दे दो, तो में अपने मकान की छत आराम से डाल सकता हूं। वृक्ष मुस्कुराया और कहने लगा तो इसमें इतना सोचने की क्या बता है। तुम ले सकते हो मेरी शाखाएं। मैं तुम्हारे किसी भी काम आ सकूं, तो अपने को धन्य ही मानूँगा। और मुझे लगेगा की तुमने मुझे प्यार किया। और वह आदमी गया और कुल्हाड़ी लेकिर आ गया और उसने उस वृक्ष की शाखाएं काट डाली। वृक्ष एक ठूंठ रह गया। एक दम मृत प्राय, नग्न, पर फिर भी वह वृक्ष आनंदित था। प्रेम सदा आनंदित रहता है। चाहे उसके अंग भी काटे जायें। लेकिन कोई ले जाये, कोई ले जाये, कोई बांट ले, कोई सम्मिलित हो जाये, कोई साझीदार हो जाये। और उस आदमी ने पीछे मुड़ कर इस बार भी नहीं देखा।
और वक्त गुजरता गया। वह ठूंठ राह देखता रहा, वह चिल्लाना चाहता था। कहना चाहता था, अपने ह्रदय की पुकार, पर अब उसके पास पत्ते भी नहीं थे। शाखाएं भी नहीं थी। हवाएँ आती और वह उनसे बात भी नहीं कर पाता था। बुला भी नहीं पाता था अपने प्रेमी को। लेकिन प्राणों में अब भी एक गूंंज थी आओ-आओ.... एक बार फिर आओ। और बहुत दिन बीत गये। तब वह बच्चा अब बूढ़ा आदमी हो गया था। वह निकल रहा था उसके पास से। और वह वृक्ष के पास आकर खड़ा हो गया। बहुत दिनों बाद आये, पर तुम्हें मेरी याद सताती तो है। कहो सब ठीक है। कैसे उदास हो। कमर झुक गई है। बाल सफेद हो गये। आंखों पर चश्मा लग गया है। उसने कहा, मैं परदेश जाना चाहता हूं। यहां इतनी मेहनत की कुछ नहीं मिला। वहां जा कर खूब धन कमाऊगां। पर मैं नदी पार नहीं कर सकता। उसके लिए नाव चाहिए। तुम अपना तना मुझे दे दो तो मैं नाव बना जा सकता हूं। वृक्ष बोला- नाव तो तुम मेरी बना सकते हो, पर मुझे भूल मत जाना वहां जाकर। मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है। तुम लौट कर जरूर इधर आना। मैं यहां तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा।
और उसने उस वृक्ष के तने को काट कर नाव बना ली। वहां रह गया एक छोटा सा ठूंठ, और वह आदमी दूर यात्रा पर निकल गया। और वह ठूंठ उसकी प्रतीक्षा करता रहा की अब आयेगा। अब आयेगा। लेकिन अब तो उसके पास कुछ भी नहीं था। उसे देने की लिए शायद वह कभी इधर नहीं आयेगा। क्योंकि अहंकार वहीं आता है, जहां कुछ पाने को है। मैं उस ठूंठ के पास एक रात मेहमान हुआ था। तो वह ठूंठ मुझसे बोला कि वह मेरा मित्र अब तक नहीं आया। और मुझे बड़ी पीड़ा होती है कि वह ठीक से तो है। वह मेरे तने की नाव बना कर परदेश गया था। कही मेरे तने में कोई छेद तो नहीं था। मुझे रात दिन यही चिंता सताये जाती है। बस एक बार यह पता चल जाये कि वह जहां भी है खुश है, तो में तृप्त हो जाऊँगा। एक खबर मुझे भर कोई ला दे। अब मैं मरने के करीब हूं। इतना पता चल जाये कि वह सकुशल है, फिर कोई बात नहीं। फिर सब ठीक है। अब तो मेरे पास देने को कुछ नहीं है। इसलिए बुलाऊं भी, तो शायद वह नहीं आयेगा। क्योंकि वह केवल लेने की ही भाषा समझता है। अहंकार लेने की भाषा समझता है। प्रेम देने की भाषा है। इससे ज्यादा और कुछ भी मैं नहीं कहूंगा। जीवन एक ऐसा वृक्ष बन जाये और उस वृक्ष की शाखाएं अनंत तक फैल जायें। सब उसकी छाया में हों और सब तक उसकी बाँहें फैल जायें, तो पता चल सकता है कि प्रेम क्या है। प्रेम का कोई शास्त्र नहीं है। न कोई परिभाषा है। न ही प्रेम का कोई सिद्धांत ही है।
(नोट: अंदर तक भिगाने वाली यह लाजवाब कहानी ओशो के प्रवचन का एक हिस्सा है। ओशो के चाहने वालों के लिए एक बेहतरीन साइट है, जिसमें उनके प्रवचनों का आनंद लिया जा सकता है। ओशो के बारे में क्या कहा जा सकता है बताइए... ऐसे शख्स, जिसने हर पढऩे-सुनने वाले को असर लेने को मजबूर किया है....इसी एक कहानी की मिसाल ले लीजिए... उनकी टिप्पणी ... प्यार और अहंकार जैसी अतिसाधारण मानवीय प्रवृत्ति (साधारण इस अर्थ में कि उसका दोहराव इतना ज्यादा है कि उसके महत्व को हम भूल चुके हैं) का अद्भुत चित्रण... ओशो प्रवचन संबंधी साइट्स की लिंक नीचे दी जा रही है....
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