07 September 2017

काफ़िया3

क्रम ३ - काफ़िया

काफिया परिचय 
काफिया अरबी शब्द है जिसकी उत्पत्ति “कफु” धातु से मानी जाती है| काफिया का शाब्दिक अर्थ है 'जाने के लिए तैयार' | ग़ज़ल के सन्दर्भ में काफिया वह शब्द है जो समतुकांतता के साथ हर शेर में बदलता रहता है यह ग़ज़ल के हर शेर में रदीफ के ठीक पहले स्थित होता है 
उदाहरण -
         हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
         इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए


         मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही

         हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए – (दुष्यंत कुमार)
 
रदीफ से परिचय हो जाने के बाद हमें पता है कि प्रस्तुत अशआर में चाहिए हर्फ़-ए-रदीफ है इस ग़ज़ल में “पिघलनी”, “निकलनी”, “जलनी” शब्द हर्फ -ए- रदीफ ‘चाहिए’ के ठीक पहले आये हैं और समतुकांत हैं, इसलिए यह हर्फ़-ए-कवाफी (कवाफी = काफिया का बहुवचन) हैं और आपस में हम काफिया शब्द हैं   
स्पष्ट है कि काफिया वो शब्द होता है जो समस्वरांत के साथ बदलता रहता है और हर शेर में  हर्फ़ -ए- रदीफ के ठीक पहले आता है अर्थात मतले की दोनों पंक्ति में और अन्य शेर की दूसरी पंक्ति में आता है|
 
काफिया ग़ज़ल का केन्द्र बिंदु होता है, शायर काफिया और रदीफ के अनुसार ही शेर लिखता है,  ग़ज़ल में रदीफ सहायक भूमिका में होती है और ग़ज़ल के हुस्न को बढाती है परन्तु काफिया ग़ज़ल का केन्द्र होता है, आपने "क्रम -१ रदीफ़" लेख में पढ़ा है कि,
             "ग़ज़ल बिना रदीफ के भी कही जा सकती है"  परन्तु काफिया के साथ यह छूट नहीं मिलती, ग़ज़ल में हर्फ़-ए-कवाफी का होना अनिवार्य है, यह ग़ज़ल का एक मूलभूत तत्व है अर्थात जिस रचना में कवाफी नहीं होते उसे ग़ज़ल नहीं कहा जा सकता
कुछ और उदाहरण से काफिया को समझते हैं -

फटी कमीज नुची आस्तीन कुछ तो है
गरीब शर्मो हया में हसीन कुछ तो है

किधर को भाग रही है इसे खबर ही नहीं
हमारी नस्ल बला की जहीन कुछ तो है 


लिबास कीमती रख कर भी शहर नंगा है

हमारे गाँव में मोटा महीन कुछ तो है    (बेकल उत्साही)
प्रस्तुत अशआर में आस्तीन, हसीन, जहीन, महीन हर्फ़-ए-कवाफी हैं

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुजर क्यों नहीं जाता

वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में

जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता

मैं अपनी ही उअलाझी हुई राहों का तमाशा

जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यों नहीं जाता  ( निदा फ़ाजली )
प्रस्तुत अशआर में ठहर, गुजर, उतर, उधर हर्फ़-ए-कवाफी हैं

कठिन है राह गुजर थोड़ी दूर साथ चलो
बहुत कडा है सफर थोड़ी दूर साथ चलो


नशे में चूर हूँ मैं भी, तुम्हें भी होश नहीं

बड़ा मजा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो

यह एक शब की मुलाक़ात भी गनीमत है

किसे हैं कल कि  खबर थोड़ी दूर साथ चलो (अहमद फराज़)
प्रस्तुत अशआर में गुजर, सफर, अगर, खबर हर्फ़-ए-कवाफी हैं


काफिया विज्ञान

काफिया से प्रथम परिचय के बाद अब हम किसी ग़ज़ल में हर्फ़ -ए- कवाफी को पहचान सकते हैं, ग़ज़ल कहते समय मतला में काफिया का चुनाव बहुत सोच समझ कर करना चाहिए, क्योकि यह ग़ज़ल का केन्द्र होता है आप जैसा कवाफी चुनेंगे आगे के शेर भी वैसे ही बनेंगे| यदि आप ऐसा कोई काफिया चुन लेते हैं जिसके हम काफिया शब्द न हों तो आप ग़ज़ल में अधिक शेर नहीं लिख पायेंगे अथवा एक हर्फ़ -ए- काफिया को कई शेर में प्रयोग करेंगे| ग़ज़ल में एक हर्फ़ -ए- काफिया को कई शेर में प्रयोग करना दोषपूर्ण तो नहीं माना जाता है परन्तु यह हमारे शब्द भण्डार की कमी को दर्शाता है तथा अच्छा नहीं समझा जाता है| यदि हमने ऐसा काफिया चुन लिया जिसके हम-काफिया शब्द मिलने मुश्किल हों अथवा अप्रचिलित हों तो हमें तंग हर्फ़ -ए- काफिया पर शेर लिखना पड़ेगा|
जैसे- मतला में “पसंद” और “बंद” काफिया रखने के बाद शायर अरूजनुसार मजबूर हो जायेगा की “छंद” “कंद” आदि  हर्फ़ ए कवाफी पर शेर लिखे| इससे ग़ज़ल में कथ्य की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है|
शेर में हर -ए- काफिया ऐसा होना चाहिए जो आम बोल चाल में इस्तेमाल किया जाता है व जिसका अर्थ अलग से न बताना पड़े क्योकि ग़ज़ल सुनते/पढते समय श्रोता/पाठक काफिया को लेकर ही सबसे अधिक उत्सुक होता है कि इस शेर में कौन सा काफिया बाँधा गया है और जब काफिया सरल और सटीक और सधा हुआ होता है तो श्रोता चमत्कृत हो जाता है और यह चमत्कार ही उसे आत्मविभोर कर देता है |

(यहाँ सामान्य शब्दों में काफिया के प्रकार की चर्चा की गयी है जिससे नए पाठकों को काफिया के भेद समझने में आसानी हो, जल्द ही काफिया के भेद व प्रकार पर अरूजानुसार आलेख भी प्रस्तुत किया जायेगा)

मुख्यतः काफिया दो प्रकार के होते हैं
१ – स्वर काफिया
२ – व्यंजन काफिया 

१- स्वर काफिया
जिस काफिया में केवल स्वर की तुकांतता रहती है उसे स्वर काफिया कहते हैं

स्वर काफिया के प्रकार
आ मात्रा का काफिया ऐसा हर्फ़ –ए- काफिया जिसमें केवल आ मात्रा की तुकांतता निभानी हो उसे आ स्वर का काफिया कहेंगे
जैसे –
दिल-ए- नादां  तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है -(ग़ालिब)

शेर में क्या है रदीफ है, और हुआ, दवा कवाफी हैं | काफिया के शब्दों को देखें तो इनमें आपस में केवल आ की मात्रा की ही तुकांतता है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः ““अ”” “और “व” आ रहा है जो समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को छूट है कि काफिया के लिए ऐसे शब्द इस्तेमाल कर सके जो ““आ”” की मात्रा पर खत्म होता हो | आगे के शेर देखें कि 'ग़ालिब' ने क्या हर्फे काफिया रखा है 
    
हम हैं मुश्ताक और वो बेजार
या इलाही ये माजरा क्या है   


आ मात्रा के काफिया पर दूसरी ग़ज़ल के दो शेर और देखें -

बोलता है तो पता लगता है
जख्म उसका भी नया लगता है


रास आ जाती है तन्हाई भी

एक दो रोज बुरा लगता है    -(शकील जमाली)

ई मात्रा का काफिया 
ऐसा हर्फ़ –ए- काफिया जिसमें केवल ई मात्रा की तुकांतता निभानी हो उसे ई स्वर का काफिया कहेंगे

जैसे –
लूटा गया है मुझको अजब दिल्लगी के साथ

इक हादसा हुआ है मेरी बेबसी के साथ      -(सुरेश रामपुरी)
शेर में के साथ रदीफ है, और दिल्लगी, बेबसी हर्फ -ए- कवाफी हैं | कवाफी को देखें तो इनमें आपस में केवल ई की मात्रा की ही तुकांतता है और उसके पहले हर्फ -ए- कवाफी में क्रमशः “”ग”” “और “स”” आ रहा है जो समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को छूट है कि काफिया में ऐसे कोई भी शब्द रख सके जो “ई” की मात्रा पर खत्म होता हो | आगे के शेर देखें कि शायर ने क्या हर्फ-ए- कवाफी रखा है 
मुझपे लगा रहा था वही आज कहकहे
मिलता था सदा जो मुझे शर्मिंदगी के साथ


मैं क्यों किसी से उसकी जफा का गिला करूँ

मजबूरियां बहुत हैं हर इक आदमी के साथ

ई मात्रा के काफिया पर दूसरी ग़ज़ल के दो शेर और देखें – 
कहीं शबनम कहीं खुशबू कहीं ताज़ा कली रखना
पुरानी डायरी में ख़ूबसूरत ज़िंदगी रखना

गरीबों के मकानों पर सियासत खूब चलती है

कहीं पर आग रख देना कहीं पर चांदनी रखना (इंतज़ार गाजीपुरी)

ऊ मात्रा का काफिया ऐसा हर्फ़ –ए- काफिया जिसमें केवल ऊ मात्रा की तुकांतता निभानी हो उसे ऊ स्वर का काफिया कहेंगे
जैसे –
खैर गुजरी की तू नहीं दिल में
अब कोई आरजू नहीं दिल में      (अल्हड बीकानेरी)


इसमें नहीं दिल में रदीफ है, और 'तू', 'आरजू' हर्फ -ए- कवाफी है | कवाफी को देखें तो इनमें आपस में केवल ऊ की मात्रा की ही समतुकांतता है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः “”त” “और “ज”” आ रहा है जो कि समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को छूट है कि काफिया में ऐसे कोई भी शब्द रख सके जो “ऊ” की मात्रा पर खत्म होता हो| आगे के शेर देखें कि शायर ने क्या हर्फे काफिया रखा है 

मय पे मौकूफ धडकनें दिल की
एक कतरा लहू नहीं दिल में

ऊ मात्रा के काफिया पर दूसरी ग़ज़ल के दो शेर और देखें –

हर खुशी की आँख में आंसू मिले
एक ही सिक्के के दो पहलू मिले

अपने अपने हौसले की बात है

सूर्य से भिडते हुए जुगनू मिले   (जहीर कुरैशी)

ए मात्रा का काफिया ऐसा हर्फ़ –ए- काफिया जिसमें केवल ए मात्रा की तुकांतता निभानी हो उसे ए स्वर का काफिया कहेंगे
जैसे –
अब काम दुआओं के सहारे नहीं चलते

चाभी न भरी हो तो खिलौने नहीं चलते (शकील जमाली)

इसमें नहीं चलते रदीफ है, और सहारेखिलौने हर्फ -ए- कवाफी हैं | कवाफी को देखें तो इनमें आपस में केवल ए मात्रा की ही समतुकांतता है और उसके पहले हर्फे कवाफी में क्रमशः र “और न आ रहा है जो कि समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को छूट है कि काफिया में ऐसे कोई भी शब्द रख सके जो “ए” की मात्रा पर खत्म होता हो | आगे के शेर देखें कि शायर ने क्या हर्फे काफिया रखा है 

इक उम्र के बिछडों का पता पूछ रहे हो
दो रोज यहाँ खून के रिश्ते नहीं चलते     

लिखने के लिए कौम के दुःख दर्द बहुत हैं

अब शेर में महबूब के नखरे नहीं चलते

ए मात्रा के काफिया पर दूसरी ग़ज़ल के दो शेर और देखें –

उसको नींदें मुझको सपने बाँट गया
वक्त भी कैसे कैसे तोहफे बाँट गया

अगली रूत में किसको पहचानेंगे हम
अब के मौसम ढेरो चेहरे बाँट गया


घर का भेदी लंका ढाने आया था

जाते जाते भेद अनोखे बाँट गया

ओ मात्रा का काफिया ऐसा हर्फ़ –ए- काफिया जिसमें केवल ओ मात्रा की तुकांतता निभानी हो उसे ओ स्वर का काफिया कहेंगे
जैसे –
हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं

भीड़ बहुत है इस मेले में खो सकता हूँ मैं   ( आलम खुर्शीद)

इसमें सकता हूँ मैं रदीफ है, और हो तथा खो हर्फ -ए- कवाफी हैं | कवाफी को देखें तो इनमें आपस में केवल ओ मात्रा की ही समतुकांतता है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः “”ह” “और “ख” आ रहा है जो कि तुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को छूट है कि काफिया में ऐसे कोई भी शब्द रख सके जो “ओ” की मात्रा पर खत्म होता हो | आगे के शेर देखें कि शायर ने क्या हर्फे कवाफी रखा है 

सन्नाटे में हर पल दहशत गूंजा करती है
इन जंगल में चैन से कैसे सो सकता हूँ मैं


सोच समझ कर चट्टानों से उलझा हूँ वर्ना

बहती गंगा में हाथों को धो सकता हूँ मैं

'ओ' मात्रा के कवाफी पर दूसरी ग़ज़ल के दो शेर और देखें –

औरों के भी गम में ज़रा रो लूं तो सुबह हो
दामन पे लगे दागों को धो लूं तो सुबह हो

दुनिया के समंदर में है जो रात कि कश्ती

उस रात कि कश्ती को डुबो लूं तो सुबह हो

अनुस्वार का काफिया ऐसा हर्फ़ –ए- काफिया जिसमें किसी स्वर के साथ अनुस्वार की समतुकांतता भी निभानी हो उसे अनुस्वार काफिया कहेंगे

अनुस्वार किसी अन्य स्वर के साथ जुड कर ही किसी शब्द में प्रयुक्त होता है
जैसे - जहाँ = ज +ह+आ+ आँ
चलूँ = च+ल+ऊ +====ऊँ====       
 
 आ मात्रा के साथ अनुस्वार काफिया का उदाहरण देखें -
लहू न हो तो कलम तर्जुमाँ नहीं होता
हमारे दौर में आँसू जबां नहीं होता     (वसीम बरेलवी)

इसमें नहीं होता रदीफ है, तर्जुमाँ और जबां हर्फ -ए- कवाफी हैं | कवाफी को देखें तो इनमें आपस में केवल आँ मात्रा की ही तुकांतता है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः “”म” “और “ब” आ रहा है जो कि समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को छूट है कि काफिया में ऐसे कोई भी शब्द रख सके जो “आँ” की मात्रा पर खत्म होता हो | आगे के शेर देखें कि शायर ने क्या हर्फे काफिया रखा है 
जहाँ रहेगा वहीं रोशनी लुटाएगा
किसी चराग का अपना मकाँ नहीं होता

वसीम सदियों की आखों से देखिये मुझको
वह लफ्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता

“आँ” मात्रा के काफिया पर दूसरी ग़ज़ल के दो शेर और देखें –

कुछ न कुछ तो उसके मेरे दरमियाँ बाकी रहा
चोट तो भर ही गयी लेकिन निशाँ बाकी रहा
आग ने बस्ती जला डाली मगर हैरत है ये
किस तरह बस्ती में मुखिया का मकाँ बाकी रहा   - (राज गोपाल सिंह)

व्यंजन काफिया 
ऐसा हर्फ़ ए काफिया जिसमें किसी व्यंजन की तुकांतता निभानी हो उसे व्यंजन काफिया कहेंगे

उदाहरण -
किसी कली ने भी देखा न आँख भर के मुझे
गुजार गयी जरसे-गुल उदास कर के मुझे    -(नासिर काज़मी)

प्रस्तुत शेर में के मुझे रदीफ है, भर और कर हर्फ -ए- कवाफी हैं| कवाफी को देखें तो इनमें आपस में र व्यंजन की समतुकांतता है और उसके पहले हर्फ-ए- कवाफी में क्रमशः 'भ' और 'क़' आ रहा है जो कि समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को ऐसा शब्द रखना होगा जो 'र' व्यंजन पर खत्म होता हो तथा उसके पहले के व्यंजन में कोई स्वर न जुड़ा हो अर्थात कर, भर हर्फ़ -ए- काफिया के बाद अन्य अशआर में अर को निभाना होगा तथा ऐसा शब्द चुनना होगा जिसके अंत में अर की तुकांतता हो जैसे - सफर, नज़र, किधर, इधर, गुजर, उभर, उतर आदि| इस ग़ज़ल में फिर, सुर आदि शब्द को काफिया के रूप में नहीं बाँध सकते हैं क्योकि इनमें क्रमशः इर, व उर की तुकांतता है जो नियमानुसार दोष पैदा करेंगे| देखें कि शायर ने क्या हर्फ -ए- कवाफी रखा है 
       
तेरे फिराक की रातें कभी न भूलेंगी
मजे मिले उन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे

मैं रो रहा था मुकद्दर कि सख्त राहों में

उड़ा के ले गए जादू तेरी नज़र के मुझे

व्यंजन काफिया के अन्य उदाहरण देखें -
१-
जो कुछ कहो क़ुबूल है तकरार क्या करूं
शर्मिंदा अब तुम्हें सरे बाज़ार क्या करूं

प्रस्तुत शेर में क्या करूं रदीफ है, तकरार और बाज़ार हर्फ -ए- कवाफी हैं| कवाफी को देखें तो इनमें आपस में र व्यंजन के साथ साथ उसके पहले  आ स्वर भी समतुकांत है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः 'र' और 'ज़' आ रहा है जो कि समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को ऐसा शब्द रखना होगा जो 'आर' हर्फ़ पर खत्म होता हो अर्थात र के साथ साथ आ स्वर को भी प्रत्येक शेर के काफिया में निर्वाह करने की बाध्यता है| र व्यंजन के पहले आ स्वर के अतिरिक्त और कोई स्वर न जुड़ा हो अर्थात तकरार, बाज़ार हर्फ़ -ए-काफिया  बाद अन्य अशआर में ऐसा शब्द चुनना होगा जिसके अंत में आर की तुकांतता हो जैसे - दीवार, इजहार, आज़ार, गुनहगार आदि| इस ग़ज़ल में जोर, तीर, दूर आदि शब्द को काफिया के रूप में नहीं बाँध सकते हैं क्योकि इनमें क्रमशः ओर, ईर व ऊर की तुकांतता है जो नियमानुसार दोष पैदा करेंगे|
देखें कि शायर ने अन्य अशआर में क्या हर्फे काफिया रखा है 
तनहाई में तो फूल भी चुभता है आँख में
तेरे बगैर गोशा -ए- गुलजार क्या करूं

यह पुरसुकून सुबह, यह मैं, यह फ़ज़ा 'शऊर'
वो सो रहे हैं, अब उन्हें बेदार क्या करूं


२-
अनोखी वज्अ हैं सारे ज़माने से निराले हैं
ये आशिक कौन सी बस्ती के या रब रहने वाले हैं  - (अल्लामा इक्बाल)

प्रस्तुत शेर में हैं रदीफ है, निराले और वाले हर्फ -ए- कवाफी हैं| कवाफी को देखें तो इनमें आपस में आ स्वर + ल व्यंजन + ए स्वर अर्थात आले की समतुकांत है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः 'अ' और 'व' आ रहा है जो समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को ऐसा शब्द रखना होगा जो 'आले' हर्फ़ पर खत्म होता हो अर्थात आ स्वर + ल व्यंजन +ए स्वर को काफिया में निर्वाह करने की बाध्यता है| ल व्यंजन के पहले आ स्वर के अतिरिक्त और कोई स्वर न जुड़ा हो अर्थात निराले तथा वाले हर्फ़ ए काफिया बाद अन्य अशआर में ऐसा शब्द चुनना होगा जिसके अंत में आले की तुकांतता हो जैसे - निकाले, छाले, काले, आदि| इस ग़ज़ल में ढेले, नीले, फफोले आदि शब्द को काफिया के रूप में नहीं बाँध सकते हैं क्योकि इनमें क्रमशः एले, ईले व ओले की तुकांतता है जो नियमानुसार दोष पैदा करेंगे| तथा ऐसे शब्द को भी काफिया नहीं बना सकते जिसमें केवल ए की मात्रा को निभाया गया हो और उसके पहले ल व्यंजन की जगह कोई और व्यंजन हो| जैसे - जागे, सादे, ये, वे, के आदि को हर्फ़ ए काफिया नहीं बना सकते हैं|  देखें कि शायर ने अन्य अशआर में क्या हर्फे काफिया रखा है 

फला फूला रहे या रब चमन मेरी उमीदों का
जिगर का खून दे देकर ये बूते मैंने पाले हैं

उमीदे हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को

ये हज़रत देखने में सीधे साधे भोले भाले हैं  

३-
कितने शिकवे गिले हैं पहले ही
राह में फासिले हैं पहले ही -(फारिग बुखारी)

प्रस्तुत शेर में हैं पहले ही रदीफ है, गिले और फासिले हर्फ -ए- कवाफी हैं| कवाफी को देखें तो इनमें आपस में इ स्वर + ल व्यंजन + ए स्वर = इले की समतुकांत है और उसके पहले हर्फे काफिया में क्रमशः 'ग' और 'स' आ रहा है जो समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को ऐसा शब्द रखना होगा जो 'इले' हर्फ़ पर खत्म होता हो अर्थात इ स्वर + ल व्यंजन +ए स्वर को काफिया में निर्वाह करने की बाध्यता है| यह ध्यान देना है कि ल व्यंजन के पहले इ स्वर के अतिरिक्त और कोई स्वर न जुड़ा हो अर्थात गिले तथा फासिले हर्फ़ ए कवाफी के बाद अन्य अशआर में ऐसा शब्द चुनना होगा जिसके अंत में इले की तुकांतता हो जैसे - काफिले, सिले, खिले, मिले आदि| इस ग़ज़ल में चले, खुले आदि शब्द को काफिया के रूप में नहीं बाँध सकते हैं क्योकि इनमें क्रमशः अले, व उले की तुकांतता है जो नियमानुसार दोष पैदा करेंगे| तथा ऐसे शब्द को भी काफिया नहीं बना सकते जिसमें केवल ए की मात्रा को निभाया गया हो और उसके पहले ल व्यंजन की जगह कोई और व्यंजन हो| जैसे - जागे, सादे, ये, वे, के आदि को हर्फ़ ए काफिया नहीं बना सकते हैं|  
देखें कि शायर ने अन्य अशआर में क्या हर्फे काफिया रखा है 

अब जबां काटने कि रस्म न डाल
कि यहाँ लैब सिले हैं पहले ही

और किस शै कि है तलब 'फारिग'
दर्द के सिलसिले हैं पहले ही



४ -
बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा
इस ज़ख्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा


प्रस्तुत शेर में नहीं देखा रदीफ है, मिलते और सिलते हर्फ -ए- कवाफी हैं| कवाफी  के शब्दों को देखें तो इनमें आपस में इ+ल+त+ए = इलते की समतुकांत है और ल व्यंजन के पहले हर्फे काफिया में क्रमशः 'म' और 'स' आ रहा है जो कि समतुकांत नहीं है, इसलिए इसके अन्य शेर में शायर को ऐसा शब्द रखना होगा जो 'इलते' हर्फ़ पर खत्म होता हो अर्थात इ स्वर + ल व्यंजन + त व्यंजन +ए स्वर को काफिया में निर्वाह करने की बाध्यता है| यह ध्यान देना है कि ल व्यंजन के पहले इ स्वर के अतिरिक्त और कोई स्वर न जुड़ा हो अर्थात अन्य अशआर में ऐसा शब्द चुनना होगा जिसके अंत में इलते की तुकांतता हो जैसे - हिलते, छिलते आदि| इस ग़ज़ल में चलते, पलते, दिखते, बिकते, देखे, कैसे आदि शब्द को काफिया के रूप में नहीं बाँध सकते हैं नियमानुसार यह मिलते-सिलते के हमकाफिया शब्द नहीं हैं|
देखें कि शायर ने अन्य अशआर में क्या हर्फे काफिया रखा है 

इक बार जिसे चाट गई धूप कि ख्वाहिश
फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा

काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी लेकिन

तितली केपरों को कभी छिलते नहीं देखा

काफिया के भेद (अरूजानुसार)

काफिया के १५ भेद होते हैं जिनमें से ६ हस्व स्वर होते हैं और ९ अक्षर के होते हैं|
(९ व्यंजन की जगह ९ अक्षर इसलिए कहा गया है क्योकि व्यंजन कहने पर हम उस स्थान पर मात्रा अर्थात स्वर को नहीं रख सकते परन्तु अक्षर कहने पर स्वर तथा व्यंजन दोनों का बोध होता है)
अतः काफिया के १५ भेद होते हैं जिनमें से ९ भेद व्यंजन और दीर्घ मात्रा के होते हैं वह निम्नलिखित हैं -

१. हर्फ़ -ए- तासीस
२. हर्फ़ -ए- दखील
३. हर्फ़ -ए- रद्फ़
४. हर्फ़ -ए- कैद
५. हर्फ़ -ए- रवी
६. हर्फ़ -ए- वस्ल
७. हर्फ़ -ए- खुरुज
८. हर्फ़ -ए- मजीद
९. हर्फ़ -ए- नाइरा

इनके अतिरिक्त ६ भेद और हैं जो छोटी मात्रा अर्थात अ, इ, उ के होते हैं  
१. रस्स
२. इश्बाअ
३ हज्व
४. तौजीह
५. मजरा
६. नफ़ाज़   

काफिया के प्रकार (अरूजानुसार)
 अरूजनुसार काफिया के १० प्रकार होते हैं

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