पूर्ण का जन्म सुपारा(मुम्बई) में एक अमीर व्यापारी के घर हुआ। उस व्यापारी की पहले ही तीन पत्नी होने के बाद भी उसका एक दासी से प्रेम हो गया। एक दासी और एक व्यापारी के मधुर प्रेम की उत्पती थे पूर्ण। पहली तीनों पत्नियों से एक-एक पुत्र पहले ही से थे। जब पूर्ण नवयुवक हुआ तब उसने अपनी पिता से पूछा की वह अपनी भाईयों के संग व्यापार कर सकता है। समुन्दरी यात्राओं पर जाने का उसका बड़ा मन करता था। पर उसके पिता ने कहा नहीं तुम दुकान देखो। मणि माणिक का व्यापार थी पूर्ण के पिता, थाईलैंड,मलेशिया, मलद्वार, सिंगापुर, बसरा…..दूर-दूर तक उनका आना जाना थी। दुकान पर बैठ कर भी पूर्ण ने अच्छा व्यवसाय किया और जो भी मुनाफा मिलता अपने तीनों भाइयों का हिस्सा अलग कर देता था। यानि एक हिस्सा अपने पास रखता और तीन हिस्से तीनों भाइयों में बराबर बाट देता। इससे उसके भाई उसकी चतुराई से बहुत प्रसन्न हुए और धीरे-धीरे उसे समुन्दरी यात्राओं पर भी संग ले जाने लगे।
पूर्ण मेधावी और चतुर था पर चालाक नहीं था। वह जब दुर समुन्दरी यात्रा पर चलता तब बहुत से और व्यापारियों को संग ले लेता उस जमाने में समुन्दरी यात्रा करना जान जोखिम में डालने जैसा था। चोर डाकू के साथ तूफान का खतरा हमेशा बना रहता था। जितने ज्यादा व्यापारी संग ले सकता उतने ले कर चलता पूर्ण और किसी को कोई कर देने की आवश्यकता भी नहीं होती।
एक बार एक व्यापारी दल श्रावस्ती से आया वह पूर्ण को अपने संग समुन्द्ररी यात्रा पर साथ ले जाना चाहता था। पूर्ण इससे पहले छ: बार सुरक्षित यात्रा कर चुका था। इस लिए लोगों को भरोसा था की पूर्ण के संग चलने से जान की जोखिम कम है। फिर मणि-माणिक की भी अच्छी परख रखता था पूर्ण। पूर्ण के लाख मना करता रहा पर वह दल माना ही नहीं और पूर्ण को अपने संग ले गया। तीन माह का सफर था। रास्ते में व्यापारियों ने भगवान बुद्ध की बातें की। श्रावस्ती का मनुष्य हो और भगवान की बातें न करे ये असंभव था। पूर्ण उनकी बातों से इतना प्रभाविता हुआ की उसने उसी समय मन में धारणा बना ली कि एक बार जरूर भगवान के दर्शन को जायेगा।
जब एक साल बाद पूर्ण उस दल के साथ सुपारा आया तब उसके भाइयों ने जिद की तुम अब शादी कर लो। पूर्ण ने कहां बस कुछ माह और। मैं इन व्यापारी दल के साथ एक बार श्रावस्ती जाना चाहता हूं उसके बाद आप जो कहेंगे वही करूंगा। श्रावस्ती पहुंच कर उन व्यापारियों ने पूर्ण अनाथ पिंडक से मिलवाया। अनाथ पिंडक न समझा कोई व्यापारी मिलने आ रहा है। उसने कहां देखो युवक मुझे इस व्यापार आदि में अब कोई रूचि नहीं रही। सही मायने में इससे मुक्त हो गया हूं। आप किसी दूसरे व्यापारी से बात करे। पर पूर्ण ने कहा। मैं आपसे व्यापार के संबंध में नहीं आप मुझे एक बार भगवान के दर्शन करा दे आपकी अति कृपा होगी। मैं 3000 मील चल कर आ रहा हूं केवल भगवान के दर्शन के लिए।
अनाथ पीड़क पूर्ण को ले भगवान की गंध कुटी में गया। पूर्ण ने भगवान को देखा और आंखें बंद कर ली और कहां अब कुछ नहीं देखना मुझे दीक्षित कर दीजिए। अब कहीं भी न आन है न जाना। है पूर्ण ने तत्क्षण दीक्षा ली और अपने पीछे आये मुनीम और दूसरें लोगों को घर भज दिया में माता-पिता और भाई बंधुओं से मेरी और से क्षमा मांगना। पर मुझे मेरा घर मिल गया। अब मैं कभी नहीं जाऊँगा। मुनीम और दूसरे साथ उसके साहस और संकल्प देख कर हतप्रभ थे। पूर्ण भगवान के कुछ गिने हुए शिष्यों में से एक था। बिहार में एक जगह है। सुक्का और वहां के आदमी अति कुरूर और हंसक है। वहां पर धर्म प्रचार के लिए जो भी गया उसे या तो मार दिया गया या उसे बहुत सताया गया। इस लिए वहां पर कोई भी भिक्षु जाने के लिए तैयार नहीं था। पूर्ण जब अरिहंत को उपल्बध हुआ और उसे लगा कि अब मेरे पास आनंद है। और मैं इसे बांट सकता हूं।
उस समय की खूबसूरत घटना को कविता में श्री भवानी प्रसाद मिश्र ने वर्णन किया है। पूर्ण भगवान से आज्ञा मांगता है सुक्का जाने के लिए…..
अर्धोन्मीलित नयन बुद्ध बैठे थे पद्मासन में,
शिष्य पूर्ण ने कहा, जिस तरह प्राण व्याप्त त्रिभुवन में,
अथवा वायु निरभ्र गगन में जैसे मुक्त विचरता
मैं त्रिलोक में वैसा ही कुछ है प्रभु, घुमा करता
शैल-शिखर, नदियों की धारा, पारावार तरू में
वचन आपके जहां कहीं, जा पहुंचूं वहीं मरूं मैं
विकल मानवों के मन जागें शांति प्रभा में ऐसे,
सूर्योदय के साथ जाग जाते है शतदल जैसे
पूर्ण ने कहा कह आपके वचनों की सुगंध फैलाता हुआ मरूं, बस यही एक आकांक्षा है। जैसे सूर्य के ऊगने पर हजार-हजार कमल खिल जाते है, ऐसे आपकी ज्योति को पहुंचाऊं और लोगों के ह्रदय-कमल खिले।
वत्स, किंतु यदि लोग न समझें, करें तुम्हें अपमानित?
कहा पूर्ण ने, प्रभु उनको में नहीं गिनुंगा अनुचित
धन्यवाद ही दूँगा, फेंकी धूल न पत्थर मारे
केवल कुछ अपशब्द, विरोधी बातें सुनी, उचारे
बुद्ध ने पूछा कि अगर लोग अपमान करेंगे पूर्ण तो फिर तुझे क्या होगा? लोग न समझेंगे तो फिर तुझे क्या होगा? तू तो समझाने जाएगा, लोग समझते कहां है। लोग समझना चाहते ही नहीं। लोग तो जो समझाने आता है उस पर नाराज हो जाते है। लोग अगर तेरा अपमान करेंगे, तो तुझे क्या होगा?
पुर्ण ने कहां बड़े भले लोग है, ऐसा धन्यवाद मानूँगा। कुछ थोड़े से अपशब्द ही कहे, पत्थर भी मार सकते थे। धूल ही उछाल सके। थोड़े अपशब्द ही कहे। अपशब्दों से क्या बनता बिगड़ता है। न कोई चोट लगती है, न कोई धाव होता है बड़े भले लोग है।
किंतु अगर वे हाथ उठाएं, फेंके तुम पर ढेले?
धन्यवाद ही दूँगा, मानूँगा छेड़छाड़ की खेले।
असि न कोश से खींची उनने, किया नहीं वध मेरा
अगर ऐसा भी हो सकता है वे ढेले भी मारे, तुम्हारी पिटाई भी करें, पत्थरों से तुम्हारा सर तोड़ दें, पूर्ण ने कहा, खुश होऊंगा, बड़े भले लोग है। तरकस से तीन न निकाला, प्राण ही न ले लिए मेरे, सिर्फ पत्थर ही मारे। खेल ही क्रीड़ा ही समझूंगा, मारा ही, मार नहीं डाला, इतना क्या कम है।
और वत्स, यदि वध कर डाला उन लोगों ने तेरा?
धर्म-पंथ पर प्राण गए, निर्वाण उसे जानूंगा
प्रभु ने अर्धोन्मीलित लोचन खोल पूर्ण को देखा
अधरों पर प्रस्फुटित हो उठी सहज स्नेहमय रेखा
रखा शीश पर हाथ पूर्ण के, कहा वत्स तुम जाओ
निर्भय होकर विकल मनों में शांति प्रभा प्रकटाओ
जब पूर्ण ने कहा कि सिर्फ मारते है, मार ही नहीं डालते; तो बुद्ध ने पूछा, और अगर वे मार ही डालें? फिर तुझे क्या होगा पूर्ण? तो उसने कहा, धर्म के पथ पर अगर मर जाऊँ तो उससे शुभ और मृत्यु क्या होगी?
प्रभु ऐसी यदि मृत्यु मिले तो भाग्य उसे मानूँगा
धर्म-पंथ पर प्राण गए, निर्वाण उसे जानूंगा
इतनी शांति भीतर हो कि मौत भी पीड़ा न दे। इतना ध्यान भीतर हो अपमान भी अपमान न लगे। ध्यान का अर्थ होता है? जो तुम्हारे अंतरतम में छिपा है। उसे उघाड़ कर देख लेना। पर्दे को हटाना। अपनी निजता का अनुभव कर लेना।
ऐसे ही ध्यान को उपल्बध व्यक्ति इस जगत में सुख की थोड़ी सी गंगा को उतार ला सकते है। ऐसे ही भगीरथ गंगा को पुकार सकते है। सुख की तुमसे यह है हो सकेगा। ध्यान का तुम्हें अर्थ भी पता नहीं है। यह बड़ा दुस्चक्र है। ध्यान का अर्थ है—होश पूर्वक जीना। बिना ध्यान के जो आदमी जीता है बेहोशी में जीता है।
पूर्ण सच में ही पूर्ण हो गया ऐसे शिष्य को देख गुरु भी धन्य हो जाता है।
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