एक युवक ने किसी ईसाई मठ के महंत से कहा – “मैं साधू बनना चाहता हूँ लेकिन मुझे कुछ नहीं आता. मेरे पिता ने मुझे शतरंज खेलना सिखाया था लेकिन शतरंज से मुक्ति तो नहीं मिलती. और जो दूसरी बात मैं जानता हूँ वह यह है कि सभी प्रकार के आमोद-प्रमोद के साधन पाप हैं.”
“हाँ, वे पाप हैं लेकिन उनसे मन भी बहलता है. और क्या पता, इस मठ को उनसे भी कुछ लाभ पहुंचे.” – महंत ने कहा.
महंत ने शतरंज का बोर्ड मंगाया और युवक को एक बाज़ी खेलने के लिए कहा.
इससे पहले कि खेल शुरू होता, महंत ने युवक से कहा – “हांलाकि हम सभी को मनोरंजन चाहिए पर हम यहाँ हर समय शतरंज तो नहीं खेलने दे सकते. हम दोनों शतरंज की एक बाज़ी खेलेंगे. यदि मैं हार गया तो मैं इस मठ को हमेशा के लिए छोड़ दूंगा और तुम मेरा स्थान ले लोगे.”
महंत वास्तव में गंभीर था. युवक को यह प्रतीत हुआ कि यह बाज़ी उसके लिए ज़िंदगी और मौत का खेल बन गयी थी. उसके माथे पर पसीना छलकने लगा. वहां उपस्थित सभी व्यक्तियों के लिए शतरंज का बोर्ड पृथ्वी की धुरी बन गया था.
महंत ने बहुत खराब शुरुआत की. युवक ने कठोर चालें चलीं लेकिन उसने एक क्षण महंत के चेहरे की ओर देखा. फिर वह जानबूझकर ख़राब खेलने लगा. उसे लगने लगा था कि दुनिया को शतरंज की उस बाज़ी से ज्यादा उस महंत की ज़रुरत थी.
अचानक ही महंत ने बोर्ड को ठोकर मारकर जमीन पर गिरा दिया.
“तुम्हें जितना सिखाया गया था तुम उससे कहीं ज्यादा जानते हो” – महंत ने युवक से कहा – “तुमने अपना पूरा ध्यान जीतने पर लगाया और तुम अपने सपनों के लिए लड़ सकते हो. फिर तुम्हारे भीतर करुणा जाग उठी और तुमने एक भले कार्य के लिए त्याग करने का निश्चय कर लिया. इस मठ में तुम्हारा स्वागत है क्योंकि तुम यह जानते हो कि तुम अनुशासन और करुणा में सामंजस्य स्थापित कर सकते हो”.
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