अब मैं तुम्हें तुम्हारे अस्तित्व की एक परम आधारभूत यौगिक संरचना के बारे में बताता हूं।
जैसे कि भौतिकविद सोचते है कि यह सब और कुछ नहीं बल्कि इलेक्ट्रॉन, विद्युत-उर्जा से निर्मित है। योग की सोच है कि यह सब और कुछ नहीं वरन ध्वनि-अणुओं से निर्मित है। अस्तित्व का मूल तत्व, योग के लिए ध्वनि है। क्योंकि जीवन और कुछ नहीं बल्कि एक तरंग है। जीवन और कुछ नहीं बल्कि ध्वनि की एक अभिव्यक्ति है। ध्वनि से हमारा आगमन होता है और पुन: हम ध्वनि में विलीन हो जाते है। मौन, आकाश, शून्यता, अनस्तित्व, तुम्हारा अंतर्तम केंद्र,चक्र की धुरी है। जब तक कि तुम उस मौन, उस आकाश तक न आ जाओ, जहां तुम्हारे शुद्ध अस्तित्व के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता,मुक्ति उपलब्ध नहीं होती। यह योग का संरचना तंत्र है।
वे तुम्हारे अस्तित्व को चार पर्तों में बांटते है। मैं जो तुमसे बोल रहा हूं, यह अंतिम पर्त है। योग इसको च्ज्वैखरीज्ज् कहता है। इस शब्द का अर्थ है, फलित, पुष्पित हो जाना। लेकिन इसके पूर्व कि मैं तुमसे बोलूं, इसके पूर्व कि मैं किसी बात का उच्चारण करूं, यह मेरे लिए एक अनुभूति का आकार, एक अनुभव का रूप ग्रहण कर लेती है। यह तीसरी पर्त है। योग इसे च्ज्माध्यमाज्ज्, बीच की कहता है। लेकिन इसके पूर्व कि भीतर कुछ अनुभव हो यह बीज रूप गतिशील होती है। सामान्यत: तुम इसका अनुभव नहीं कर सकते हो जब तक कि तुम बहुत ध्यान पूर्ण न हो, जब तक कि तुम पूरी तरह से इतने शांत न हो चुके हो कि ऐसे बीज में जो अंकुरित भी न हुआ हो। में होने वाले प्रकंपन को भी अनुभव कर सको, जो बहुत सूक्ष्म है। योग इसे पश्यंती कहता है। च्ज्पश्यंतीज्ज् का अर्थ है: पीछे लौट कर देखना, स्त्रोत की और देखना। और इसके परे तुम्हारा आधारभूत अस्तित्व है जिससे सब कुछ निकलता है, यह च्ज्पराज्ज् कहलाता है। परा का अर्थ है: जो सबसे परे है।
अब इन चार पर्तों को समझने का प्रयास करो। परा सभी रूपों से परे कुछ है। पश्यंती बीज के समान है। मध्यमा वृक्ष के जैसी है। वैखरी फलित हो जाने,पुष्पित हो जाने जैसी है।
मैं पुन: छान्दोग्य उपनिषाद से एक कथा तुम्हें सुनाता हूं:
उस वटवृक्ष से मेरे लिए फल तोड़ कर तो लाना, महर्षि उद्दालक ने अपने पुत्र से कहा।
यह लीजिए पिता श्री, श्वेतकेतु ने कहा।
इसे तोड़ो।
यह टूट गया, ऋषि वर।
इसके भीतर तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है?
इसके बीज, असंख्य है ये तो।
उनमें से एक को तोड़ो।
यह टूट गया, ऋषि वर।
तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है?
कुछ नहीं,ऋषि वर, बिलकुल कुछ नहीं।
पिता ने कहा: वत्स यह सूक्ष्म सार जिसको तुम यहां नहीं देख पा रहे हो, उसी सार-तत्व से यह वटवृक्ष आस्तित्व में आता है। विश्वास करो वत्स कि यह सार तत्व है। जिसमें सारी चीजों को आस्तित्व है। यही सत्य है। यही स्वय है। और श्वेतकेतु वहीं तुम हो—तत्व मसि श्वेतकेतु।
वटवृक्ष एक बड़ा वृक्ष है। पिता ने एक फल लाने को कहा,श्वेतकेतु उसे लेकिर आया। फल वैखरी है—वह चीज पुष्पित हो चुकी है। फल लग गया है। फल सर्वाधिक परिधिगत घटना है। मूर्तमान होने की पराकाष्ठा। पिता कहता है, इसे तोड़ो। श्वेतकेतु उसे तोड़ता है। लाखों बीज है उसके भीतर। पिता कहते है एक बीज चुन लो, इसे भी तोड़ो। वह उसे बीज को भी तोड़ता है। अब हाथ में कुछ न रहा। अब बीज के भीतर कुछ भी नहीं है।
उद्दालक ने कहा: इस शून्यता से बीज आता है, इस बीज से वृक्ष का जन्म होता है। वृक्ष में फल लगते है। लेकिन आधार है शून्यता,मौन, अमूर्त निराकार, पार,वह जो सबसे परे है।
वैखरी की अवस्था में तुम बहुत अधिक संशयग्रस्त होते हो। क्योंकि तुम अपने अस्तित्व से सर्वाधिक दूर हो। यदि तुम अपने अस्तित्व में थोड़ा गहरे उतरो,जब तुम च्ज्माध्यमाज्ज् के तीसरे बिंदु के निकट आते हो तब तुम अपने आस्तित्व के और समीप आ जाते हो। यही कारण है कि इसे माध्यमा सेतु कहा जाता है। इसी प्रकार से एक ध्यानी अपने आस्तित्व में प्रवेश करता है। इसी प्रकार से मंत्र का प्रयोग किया जाता हैज्ज्
जब तुम किसी मंत्र का प्रयोग करते हो और तुम लय पूर्वक दोहराते हो—ओम ओम –ओमज् पहले इसे जोर से दोहराना है: वैखरी। फिर तुमको अपने ओंठ बंद करने पड़ते है और अंदर इसे दोहराना होता है—ओम ओम और ओमज्ज्कोई ध्वनि बाहर नहीं आती: मध्यमा। फिर तुम्हें भीतर दोहराना भी छोड़ देना पड़ता है। इसके साथ तुम इस भांति लयबद्ध हो जाते हो कि जब तुम इसे दोहराना छोड़ देते हो और यह अपने आप से ही जारी रहता है—ओम..ओम..अब इसको दोहराने के स्थान पर तुम श्रोता बन जाते हो, तुम सुन सकते हो, निरीक्षण कर सकते हो और देख सकते हो: यह पश्यंती बन गया है। पश्यंती का अर्थ है: पीछे लौट कर स्त्रोत को देखना। आंखें स्त्रोत की और घूम गई तब धीरे-धीरे यह ओमज्ओमज्नहीं सुनते; तुम कुछ भी नहीं सुनते। न तो वहां सुनने के लिए कुछ होता है, न ही सुनने वाला होता है सभी कुछ तिरोहित हो चुका है।
च्ज्तत्व मसि श्वेतकेतु,उद्दालक ने अपने पुत्र से कहा, तुम वही हो वहीं शून्यता जहां मंत्रोच्चारक और मंत्रोच्चार दोनों विलीन हो चुका है।
जैसे कि भौतिकविद सोचते है कि यह सब और कुछ नहीं बल्कि इलेक्ट्रॉन, विद्युत-उर्जा से निर्मित है। योग की सोच है कि यह सब और कुछ नहीं वरन ध्वनि-अणुओं से निर्मित है। अस्तित्व का मूल तत्व, योग के लिए ध्वनि है। क्योंकि जीवन और कुछ नहीं बल्कि एक तरंग है। जीवन और कुछ नहीं बल्कि ध्वनि की एक अभिव्यक्ति है। ध्वनि से हमारा आगमन होता है और पुन: हम ध्वनि में विलीन हो जाते है। मौन, आकाश, शून्यता, अनस्तित्व, तुम्हारा अंतर्तम केंद्र,चक्र की धुरी है। जब तक कि तुम उस मौन, उस आकाश तक न आ जाओ, जहां तुम्हारे शुद्ध अस्तित्व के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता,मुक्ति उपलब्ध नहीं होती। यह योग का संरचना तंत्र है।
वे तुम्हारे अस्तित्व को चार पर्तों में बांटते है। मैं जो तुमसे बोल रहा हूं, यह अंतिम पर्त है। योग इसको च्ज्वैखरीज्ज् कहता है। इस शब्द का अर्थ है, फलित, पुष्पित हो जाना। लेकिन इसके पूर्व कि मैं तुमसे बोलूं, इसके पूर्व कि मैं किसी बात का उच्चारण करूं, यह मेरे लिए एक अनुभूति का आकार, एक अनुभव का रूप ग्रहण कर लेती है। यह तीसरी पर्त है। योग इसे च्ज्माध्यमाज्ज्, बीच की कहता है। लेकिन इसके पूर्व कि भीतर कुछ अनुभव हो यह बीज रूप गतिशील होती है। सामान्यत: तुम इसका अनुभव नहीं कर सकते हो जब तक कि तुम बहुत ध्यान पूर्ण न हो, जब तक कि तुम पूरी तरह से इतने शांत न हो चुके हो कि ऐसे बीज में जो अंकुरित भी न हुआ हो। में होने वाले प्रकंपन को भी अनुभव कर सको, जो बहुत सूक्ष्म है। योग इसे पश्यंती कहता है। च्ज्पश्यंतीज्ज् का अर्थ है: पीछे लौट कर देखना, स्त्रोत की और देखना। और इसके परे तुम्हारा आधारभूत अस्तित्व है जिससे सब कुछ निकलता है, यह च्ज्पराज्ज् कहलाता है। परा का अर्थ है: जो सबसे परे है।
अब इन चार पर्तों को समझने का प्रयास करो। परा सभी रूपों से परे कुछ है। पश्यंती बीज के समान है। मध्यमा वृक्ष के जैसी है। वैखरी फलित हो जाने,पुष्पित हो जाने जैसी है।
मैं पुन: छान्दोग्य उपनिषाद से एक कथा तुम्हें सुनाता हूं:
उस वटवृक्ष से मेरे लिए फल तोड़ कर तो लाना, महर्षि उद्दालक ने अपने पुत्र से कहा।
यह लीजिए पिता श्री, श्वेतकेतु ने कहा।
इसे तोड़ो।
यह टूट गया, ऋषि वर।
इसके भीतर तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है?
इसके बीज, असंख्य है ये तो।
उनमें से एक को तोड़ो।
यह टूट गया, ऋषि वर।
तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है?
कुछ नहीं,ऋषि वर, बिलकुल कुछ नहीं।
पिता ने कहा: वत्स यह सूक्ष्म सार जिसको तुम यहां नहीं देख पा रहे हो, उसी सार-तत्व से यह वटवृक्ष आस्तित्व में आता है। विश्वास करो वत्स कि यह सार तत्व है। जिसमें सारी चीजों को आस्तित्व है। यही सत्य है। यही स्वय है। और श्वेतकेतु वहीं तुम हो—तत्व मसि श्वेतकेतु।
वटवृक्ष एक बड़ा वृक्ष है। पिता ने एक फल लाने को कहा,श्वेतकेतु उसे लेकिर आया। फल वैखरी है—वह चीज पुष्पित हो चुकी है। फल लग गया है। फल सर्वाधिक परिधिगत घटना है। मूर्तमान होने की पराकाष्ठा। पिता कहता है, इसे तोड़ो। श्वेतकेतु उसे तोड़ता है। लाखों बीज है उसके भीतर। पिता कहते है एक बीज चुन लो, इसे भी तोड़ो। वह उसे बीज को भी तोड़ता है। अब हाथ में कुछ न रहा। अब बीज के भीतर कुछ भी नहीं है।
उद्दालक ने कहा: इस शून्यता से बीज आता है, इस बीज से वृक्ष का जन्म होता है। वृक्ष में फल लगते है। लेकिन आधार है शून्यता,मौन, अमूर्त निराकार, पार,वह जो सबसे परे है।
वैखरी की अवस्था में तुम बहुत अधिक संशयग्रस्त होते हो। क्योंकि तुम अपने अस्तित्व से सर्वाधिक दूर हो। यदि तुम अपने अस्तित्व में थोड़ा गहरे उतरो,जब तुम च्ज्माध्यमाज्ज् के तीसरे बिंदु के निकट आते हो तब तुम अपने आस्तित्व के और समीप आ जाते हो। यही कारण है कि इसे माध्यमा सेतु कहा जाता है। इसी प्रकार से एक ध्यानी अपने आस्तित्व में प्रवेश करता है। इसी प्रकार से मंत्र का प्रयोग किया जाता हैज्ज्
जब तुम किसी मंत्र का प्रयोग करते हो और तुम लय पूर्वक दोहराते हो—ओम ओम –ओमज् पहले इसे जोर से दोहराना है: वैखरी। फिर तुमको अपने ओंठ बंद करने पड़ते है और अंदर इसे दोहराना होता है—ओम ओम और ओमज्ज्कोई ध्वनि बाहर नहीं आती: मध्यमा। फिर तुम्हें भीतर दोहराना भी छोड़ देना पड़ता है। इसके साथ तुम इस भांति लयबद्ध हो जाते हो कि जब तुम इसे दोहराना छोड़ देते हो और यह अपने आप से ही जारी रहता है—ओम..ओम..अब इसको दोहराने के स्थान पर तुम श्रोता बन जाते हो, तुम सुन सकते हो, निरीक्षण कर सकते हो और देख सकते हो: यह पश्यंती बन गया है। पश्यंती का अर्थ है: पीछे लौट कर स्त्रोत को देखना। आंखें स्त्रोत की और घूम गई तब धीरे-धीरे यह ओमज्ओमज्नहीं सुनते; तुम कुछ भी नहीं सुनते। न तो वहां सुनने के लिए कुछ होता है, न ही सुनने वाला होता है सभी कुछ तिरोहित हो चुका है।
च्ज्तत्व मसि श्वेतकेतु,उद्दालक ने अपने पुत्र से कहा, तुम वही हो वहीं शून्यता जहां मंत्रोच्चारक और मंत्रोच्चार दोनों विलीन हो चुका है।
ओशो (पतंजलि: योग सूत्र- भाग—६)
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