इस आर्टिकल को सालों पहले डब्लू लिविंगस्टोन लारनेड ने लिखा है। गहन अनुभूति के क्षणों में लिखा जाने वाला यह लेख एक पिता की अपराधस्वीकारोत्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पिता-पुत्र रिश्तों की कसौटी और मानवीय संवेदनाओं की दरकार को भी रेखांकित करता है। सच तो यह है कि यह लेख केवल एक पिता से नहीं, बल्कि संपूर्ण मानव समाज से बालमनोविज्ञान को समझने का, प्रकृति के इन फूलों की कोमलता को बनाए रखते हुए, इनका विकास करने का आग्रह करता है... प्रस्तुत है यह पत्र...
सुनो बेटे, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। तुम गहरी नींद में सो रहे हो। तुम्हारा नन्हा-सा हाथ तुम्हारे नाजुक गाल में दबा है। और तुम्हारे पसीना-पसीना ललाट पर घुंघराले बाल बिखरे हुए हैं। मैं तुम्हारे कमरे में चुपके से दाखिल हुआ हूं, अकेला। अभी कुछ मिनट पहले जब मैं लाइब्रेरी में अखबार पढ़ रहा था, तो मुझे बहुत पश्चाताप हुआ। इसीलिए तो आधी रात को मैं तुम्हारे पास खड़ा हूं, किसी अपराधी की तरह।
जिन बातों के बारे में मैं सोच रहा था, वह ये हैं, बेटे। मैं आज तुम पर बहुत नाराज हुआ। जब तुम स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे थे, तब मैंने तुम्हें खूब डांटा... तुमने टॉवेल के बजाय पर्दे से हाथ पोंछ लिए थे। तुम्हारे जूते गंदे थे, इस बात पर भी मैंने तुम्हे कोसा। तुमने फर्श पर इधर-उधर चीजें फेंक रखी थीं... इस पर भी मैंने तुम्हें भला-बुरा कहा।
नाश्ता करते वक्त भी मैं तुम्हारी एक-के-बाद एक गलतियां निकालता रहा। तुमने डाइनिंग टेबल पर खाना बिखरा दिया था। खाते समय तुम्हारे मुंह से चपड़-चपड़ की आवाज आ रही थी। मेज पर तुमने कोहनियां भी टिका रखी थीं। तुमने ब्रेड पर बहुत-सा मक्खन भी चुपड़ लिया था। यही नहीं जब मैं ऑफिस जा रहा था और तुम खेलने जा रहे थे... और तुमने मुड़कर हाथ हिलाकर 'बॉय-बॉय, डैडीÓ कहा था, तब भी मैंने भृकुटी तानकर टोका था- 'अपनी कॉलर ठीक करोÓ
शाम को भी मैंने यही सब किया। ऑफिस से लौटकर मैंने देखा कि तुम दोस्तों के साथ मिट्टी में खेल रहे थे। तुम्हारे कपड़े गंदे थे, तुम्हारे मोजों में छेद हो गए थे। मैं तुम्हें पकड़कर ले गया और तुम्हारे दोस्तों के सामने तुम्हें अपमानित किया... 'मोजे महंगे हैं- जब तुम्हें खरीदना पड़ेंगे, तब तुम्हें इनकी कीमत समझ में आएगी।Ó जरा सोचो तो सही, एक पिता अपने बेटे का इससे ज्यादा दिल किस तरह दुखा सकता है?
क्या तुम्हें याद है जब मैं लाइब्रेरी में पढ़ रहा था, तब तुम रात को मेरे कमरे में आए थे, किसी सहमे हुए मृगछौने की तरह। तुम्हारी आंखे बता रही थीं कि तुम्हें कितनी चोट पहुंची हैं। और मैंने अखबार के ऊपर से देखते हुए पढऩे में बाधा डालने के लिए तुम्हें झिड़क दिया था... 'कभी तो चैन से रहने दिया करो। अब क्या बात है?Ó और तुम दरवाजे पर ही ठिठक गए थे।
तुमने कुछ नहीं कहा। तुम बस भागकर आए, मेरे गले में बांहे डालकर मुझे चूमा और 'गुडनाइटÓ कहकर चले गए। तुम्हारी नन्ही बांहों की जकडऩ बता रही थी कि तुम्हारे दिल में ईश्वर ने प्रेम का ऐसा फूल खिलाया था, जो इतनी उपेक्षा के बाद भी नहीं मुरझाया। और फिर तुम सीढिय़ों पर खट-खट करके चढ़ गए।
तो बेटे, इस घटना के कुछ ही देर बाद मेरे हाथों से अखबार छूट गया और मुझे बहुत ग्लानि हुई। यह क्या होता जा रहा है मुझे? गलतियां ढूंढऩे की, डांटने-डपटने की आदत सी पड़ती जा रही है मुझे। अपने बच्चे के बचपने का मैं यह पुरस्कार दे रहा हूं। ऐसा नहीं है बेटे, कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करता, पर मैं एक बच्चे से जरूरत से ज्यादा उम्मीदें लगा बैठा था। मैं तुम्हारे व्यवहार को अपनी उम्र के तराजू पर तौल रहा था।
तुम इतने प्यारे हो, इतने अच्छे और सच्चे। तुम्हारा नन्हा-सा दिल इतना बड़ा है जैसे चौड़ी पहाडिय़ों के पीछे से उगती सुबह। तुम्हारा बड़प्पन इसी बात से जाहिर होता है कि दिन भर डांटते रहने वाला पापा को भी तुम रात को'गुडनाइट किसÓ देने आए। आज की रात और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है, बेटे। मैं अंधेरे में तुम्हारे सिरहाने आया हूं और यहां घुटने टिकाए बैठा हूं, शर्मिंदा।
यह एक कमजोर पश्चाताप है। पर मैं जानता हूं कि अगर तुम्हें जगाकर यह सब कहूंगा, तो शायद तुम नहीं समझोगे। कल से मैं सचमुच तुम्हारा प्यारा पापा बनकर दिखाऊंगा। मैं तुम्हारे साथ खेलूंगा, तुम्हारी मजेदार बातें मन लगाकर सुनूंगा, तुम्हारे साथ खुलकर हंसूंगा और तुम्हारी तकलीफों को बांटूंगा। आगे से जब मैं तुम्हें डांटने के लिए मुंह खोलूंगा, तो इसके पहले अपनी जीभ को अपने दांतों में दबा लूंगा। मैं बार-बार किसी मंत्र की तरह कहना सीखूंगा... 'वह तो अभी बच्चा है, छोटा-सा बच्चा।Ó
मुझे अफसोस है कि मैंने तुम्हें बच्चा नहीं, बड़ा मान लिया था। परंतु आज जब मैं तुम्हें गुड़ी-मुड़ी और थका-थका पलंग पर सोया देख रहा हूं, बेटे, तो मुझे एहसास होता है कि तुम अभी बच्चे ही तो हो। कल तक तुम अपनी मां की बांहों में थे, उसके कांधे पर सिर रखे। मैंने तुमसे कितनी ज्यादा उम्मीदें की थीं, कितनी ज्यादा...।
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