सीटा के ईसाई मठ में महंत लूकास ने एक दिन सभी शिष्यों को प्रवचन के समय कहा- ईश्वर करे कि तुम सभी भुला दिए जाओ! उनमें से एक ने कहा- यह आप क्या कह रहे हैं? क्या इसका अर्थ यह है कि कोई भी हमसे जगत के कल्याण करने की सीख नहीं ले पाएगा? महंत ने कहा- तुम सभी यह जानते हो कि पुराने जमाने में सभी सत्य के मार्ग पर चलते थे और ऐसा कोई भी नहीं था जिसके चरित्र और व्यवहार को सभी अनुकरणीय मानते। सभी धर्म के मार्ग पर चलते थे, शुभ कर्म करते समय कोई यह नहीं सोचता था कि उन्हें धर्म-सम्मत कार्य करने के निर्देश दिए गए हैं? वे अपने पड़ोसी से इसलिए प्रेम करते थे क्योंकि इसे वह जीवन का अनिवार्य अंग समझते थे। वे प्रकृति के नियमों का पालन ही तो करते थे! आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करते थे, क्योंकि वे जानते थे कि वे इस दुनिया में केवल एक अतिथि के रूप में आए थे और ज्यादा बोझ नहीं ढो सकते थे। वे एक-दूसरे के साथ स्वतंत्रतापूर्वक चीजों का आदान-प्रदान करते थे, न तो वे किसी वस्तु पर अधिकार जताते थे, न ही वे किसी से ईष्र्या रखते थे। यही कारण है कि उनके जीवन के किसी भी पक्ष के बारे में कुछ भी कहा-लिखा नहीं गया। उनका इतिहास भी नहीं है और वे कहानियों में भी नहीं मिलते। जब अच्छाई इतनी ही सर्वसुलभ और साधारण हो जाती है, तो उसका पालन करनेवालों की प्रशंसा कौन करता है!
इस दुनिया की सबसे बड़ी दौलत है भीतर की शांति... सबकुछ देकर भी यदि वह मिले तो ले लेना...
23 September 2011
कैसी अच्छाई, कैसी प्रशंसा..
सीटा के ईसाई मठ में महंत लूकास ने एक दिन सभी शिष्यों को प्रवचन के समय कहा- ईश्वर करे कि तुम सभी भुला दिए जाओ! उनमें से एक ने कहा- यह आप क्या कह रहे हैं? क्या इसका अर्थ यह है कि कोई भी हमसे जगत के कल्याण करने की सीख नहीं ले पाएगा? महंत ने कहा- तुम सभी यह जानते हो कि पुराने जमाने में सभी सत्य के मार्ग पर चलते थे और ऐसा कोई भी नहीं था जिसके चरित्र और व्यवहार को सभी अनुकरणीय मानते। सभी धर्म के मार्ग पर चलते थे, शुभ कर्म करते समय कोई यह नहीं सोचता था कि उन्हें धर्म-सम्मत कार्य करने के निर्देश दिए गए हैं? वे अपने पड़ोसी से इसलिए प्रेम करते थे क्योंकि इसे वह जीवन का अनिवार्य अंग समझते थे। वे प्रकृति के नियमों का पालन ही तो करते थे! आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करते थे, क्योंकि वे जानते थे कि वे इस दुनिया में केवल एक अतिथि के रूप में आए थे और ज्यादा बोझ नहीं ढो सकते थे। वे एक-दूसरे के साथ स्वतंत्रतापूर्वक चीजों का आदान-प्रदान करते थे, न तो वे किसी वस्तु पर अधिकार जताते थे, न ही वे किसी से ईष्र्या रखते थे। यही कारण है कि उनके जीवन के किसी भी पक्ष के बारे में कुछ भी कहा-लिखा नहीं गया। उनका इतिहास भी नहीं है और वे कहानियों में भी नहीं मिलते। जब अच्छाई इतनी ही सर्वसुलभ और साधारण हो जाती है, तो उसका पालन करनेवालों की प्रशंसा कौन करता है!
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